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व॒यम॒द्येन्द्र॑स्य॒ प्रेष्ठा॑ व॒यं श्वो वो॑चेमहि सम॒र्ये। व॒यं पु॒रा महि॑ च नो॒ अनु॒ द्यून्तन्न॑ ऋभु॒क्षा न॒रामनु॑ ष्यात् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vayam adyendrasya preṣṭhā vayaṁ śvo vocemahi samarye | vayam purā mahi ca no anu dyūn tan na ṛbhukṣā narām anu ṣyāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व॒यम्। अ॒द्य। इन्द्र॑स्य। प्रेष्ठाः॑। व॒यम्। श्वः। वो॒चे॒म॒हि॒। स॒ऽम॒र्ये। व॒यम्। पु॒रा। महि॑। च॒। नः॒। अनु॑। द्यून्। तत्। नः॒। ऋ॒भु॒क्षाः। न॒राम्। अनु॑। स्या॒त् ॥ १.१६७.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:167» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! (वयम्) हम लोग (अद्य) आज (इन्द्रस्य) परमविद्या और ऐश्वर्ययुक्त धार्मिक विद्वान् के (प्रेष्ठाः) अत्यन्त प्रिय हैं (वयम्) हम लोग (श्वः) कल्ह के आनेवाले दिन (समर्य्ये) संग्राम में (वोचेमहि) कहें (च) और (पुरा) प्रथम जो (नः) हम लोगों का (महि) बड़प्पन है (तत्) उसको (वयम्) हम लोग (अनु, द्यून्) प्रतिदिन कहें और (नराम्) मनुष्यों के बीच (नः) हमारे लिये (ऋभुक्षाः) मेधावी बुद्धिमान् वीर पुरुष (अनु, ष्यात्) अनुकूल हो ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वानों से प्रीति, युद्ध में उत्साह और मनुष्यादिकों का प्रिय काम का पहिले से आचरण करते हैं, वे सबके पियारे होते हैं ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वांसो वयमद्य इन्द्रस्य प्रेष्ठाः स्मो वयं श्वः समर्ये वोचेमहि। पुरा यच्च नो महि तद्वयमनु द्यून् वोचेमहि नरां मनुष्याणां मध्ये न ऋभुक्षा अनुष्यात् ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) (अद्य) अस्मिन् दिने (इन्द्रस्य) परमैश्वर्ययुक्तस्य धार्मिकस्य विदुषः (प्रेष्ठाः) अतिशयेन प्रियाः (वयम्) (श्वः) आगामिदिने (वोचेमहि) वदेम। अत्राडभावः। (समर्ये) संग्रामे (वयम्) (पुरा) (महि) महत् (च) (नः) अस्माकम् (अनु) (द्यून्) दिनानि (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (ऋभुक्षाः) मेधावी (नराम्) मनुष्याणाम् (अनु) आनुकूल्ये (स्यात्) ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वत्प्रीतिं युद्धेषूत्साहं मनुष्यादीनां प्रियं च पुरस्तादाचरन्ति ते सर्वेषां प्रिया भवन्ति ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे जे विद्वानांशी प्रेम, युद्धात उत्साह व माणसांना प्रिय असलेल्या कामाचे आरंभापासूनच आचरण करतात ते सर्वांचे प्रिय असतात. ॥ १० ॥